भाषा विचार

भगवती सरस्वती वाणी की देवी है इसलिए हम भाषा के विषय में चिंतन करेंगे।

भाषा का मूल आधार है वाणी। वाणी बोली जाती है इसलिए उसे भाषा कहते हैं। ‘या भाष्यते सा भाषा’। वाणी और भाषा में अंतर क्या है? यही कि वाणी भाषा का एक अंग है। भाषा के दो अंग हैं। एक है शब्द और दूसरा है अर्थ। वाणी ही शब्द है। वाणी ही वाक् है। शब्द आकाश का गुण है। वह आकाश में रहता है। शब्द हमारे अंदर वाक् रूप में रहता है। शब्द यदि वाणी में रहता है तो अर्थ क्या है? अर्थ कहाँ रहता है? अर्थ जीवन में रहता है। 

जीवन और जगत में बननेवाली घटनाओं, हृदय में उठने वाले भावों, मन में जागने वाले विचारों को दूसरे के समक्ष प्रस्तुत करने की,  उन तक पहुंचाने की आवश्यकता होती है। तब हम वाक् का सहयोग लेते हैं। वाक् और अर्थ मिलकर भाषा बनते हैं। वाक् और अर्थ का संबंध एक एकात्म संबंध है। दोनों मिलकर एक भाषा बनाते हैं।

वाक् और अर्थ के संबंध की उपमा कविकुलगुरु कालिदास ने, भगवान शंकर और पार्वती के संबंध को, दी है। अपने महाकाव्य रघुवंश के प्रथम सर्ग के श्लोक को ही वे इस प्रकार लिखते हैं।

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ।।

अर्थात वाक् और अर्थ के समान एक दूसरे से मिलकर एक बने हुए जगत के माता पिता पार्वती और परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

वाणी के चार प्रकार

पाक अथवा वाणी के चार स्तर होते हैं। इसके अनुसार उसके चार नाम है।

  • वैखरी, २) मध्यमा, ३) पश्यन्ति और ४) परा

वाक् शरीर के किन भागों से उत्पन्न होती है यह भी बताया गया है। वैखरी कंठ से, मध्यमा हृदय से, पश्यन्ति नाभि से उत्पन्न होती है। परा वाणी आत्मा का स्वरूप है, यही नादब्रह्म है। चार में से केवल वैखरी कानों को सुनाई देती है, शेष तीनों का अनुभव होता है। वे सुनाई नहीं देती, केवल अनुभव में आती है।

शब्द और अर्थ की यह सृष्टि मनुष्य की बुद्धि का अद्भुत चमत्कार है। शब्द आया तो परमात्मा से, शब्द रहा तो त्रिभुवन में व्याप्त परंतु अर्थ आया विश्वरूप से। भाषा नादब्रह्मरूप आत्मरूप की भाषारूप सृष्टि है।

इस भाषा को सीखना, उसके ऊपर प्रभुत्व प्राप्त करना और उसका उत्तम पद्धति से प्रयोग करना हर व्यक्ति का दायित्व है।

भाषा का सामर्थ्य

भाषा का प्रयोग समर्थ बनकर करना नहीं आता ऐसा कोई व्यक्ति विद्वान नहीं बन सकता, शास्त्रज्ञ नहीं बन सकता, शास्त्र की रचना करने वाला नहीं बन सकता, शास्त्र का अध्यापन नहीं कर सकता। भाषा का समर्थ जानकार बने बिना कोई व्यक्ति काव्य रचना नहीं कर सकता। भाषा के अच्छे ज्ञान के बिना कोई व्यक्ति कठिन सिद्धांत, संकल्पनाएँ, प्रतिपादन समझ नहीं सकता। भाषा अवगत नहीं हैं तो कोई अपनी बात सही तरीके से दूसरों तक पहुंचा नहीं सकता। इसलिए हमें भाषा अच्छी तरह सीखनी चाहिए। हमारी शिक्षा जब से शुरू होती है, तब से भाषा एक प्रमुख विषय बननी चाहिए।

लेखन कहाँ से आया

या भाष्यते सा भाषा। बोली जाती है इसलिए यह भाषा है। तो फिर हम लिखते कैसे है? बोलने के लिए तो कागज, पेन, स्याही, कंप्यूटर आदि कुछ नहीं चाहिए। बोलने की इन्द्रिय तो हमें जन्म से ही प्राप्त है। फिर यह कागज आदि कहाँ से आए? अक्षर हम कैसे लिखते हैं?

यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि अक्षर ध्वनि का चित्र रूप है। अक्षर ध्वनि का चित्रमय संकेत है? इस चित्र प्रणाली को लिपि कहते हैं।

लिपि कहाँ से आयी? देवताओं ने ब्रह्मा को कहा कि जब हम बोलते है तो बोलने के बाद हमारी वाक् अवकाश में विलीन हो जाती है। स्मृति में कुछ समय तक रहती है। स्मृति में रखने के लिए हमें बहुत प्रयास करने पड़ते हैं। इसे संरक्षित करने का कोई उपाय बताइए।  भगवान को उनकी बात जंची। उन्होंने अत्यंत बुद्धिमान देव को इसका कोई उपाय खोजने के लिए कहा। यह बुद्धिमान देवता थे गणेश। उन्होंने अपनी सूक्ष्म व कुशाग्र बुद्धि का प्रयोग करते हुए वाक् को, ध्वनि को, शब्द को अक्षर रूप दिया। उन्होंने संकेतों की ऐसी अद्भुत रचना की कि अब जो भी बोला जाता था वह चित्र रूप में उतारा जाता था। वही भाषा का अक्षर रूप बना। इस प्रकार ध्वनि रूप का चित्ररूप बना, अक्षररूप बना, वर्णरूप बना। इससे आगे लेखन का बहुत विकास हुआ।

अतः भगवान गणेश को लिपि विधाता गणेश कहा जाता है।

भगवान वेदव्यास महाभारत की कथा बता रहे हैं और भगवान गणेश उसे लिख रहे हैं, ऐसा चित्र हम देखते हैं। यह चित्र सांकेतिक हैं और भगवान गणेश ने लेखन विद्या का आविष्कार किया, यह दर्शाता है।

बोलने के लिए तो कोई साधन सामग्री चाहिए ही नहीं परंतु लिखने के लिए तो कागज चाहिए और लेखनी भी चाहिए। अतः कागज और स्याही तथा लेखनी निर्माण के उद्योग शुरू हुए। लिखने वालों ने कितने प्रकार से लिखा। किसी ने पत्थर पर लिखा, किसी ने पत्तों पर लिखा, किसी ने लकड़ी पर लिखा, किसी ने तांबा, चांदी स्वर्णादि धातु पर लिखा। किसी ने रेत पर लिखा, मिट्टी पर लिखा, ईंट पर लिखा तो किसी ने वस्त्र पर लिखा। इन सबको सांकेतिक रूप में कागज ही कहा जाएगा।

साथ ही अनेक प्रकार की अनेक रंगों की स्याही भी बनने लगी। लेखनी भी अनेक प्रकार की बनी। किसी ने नुकीले पत्थर से लिखा, किसी ने वृक्ष की टहनी से लिखा, किसी ने मयूरपिच्छ से लिखा, किसी ने उँगली से तो किसी ने कील से लिखा। आज हमें पेन, पेन्सिल, कित्ता इतने ही शब्दों का पता है परन्तु लेखनी के भी विविध रूप रहे हैं। आज कागज के स्थान पर कंप्यूटर का स्क्रीन और कीबोर्ड का प्रयोग भी होता है।

इस प्रकार भाषा के वर्ण रूप भी बड़ा संसार है।

अब दो विद्याएं भी है। एक है वाक् विद्या। और दूसरी है लेखनविद्या। इसमें वाक् विद्या अथवा वाणीविद्या प्रमुख हैं और लेखनविद्या उसका अनुसरण करती है। अब वाणीविद्या और लेखनविद्या को लेकर चार क्रियाएं हुईं। ये चार है – सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। सुनने और बोलने का संबंध वाणीविद्या के साथ, जबकि पढ़ने और लिखने का लेखनविद्या से। बोलने से भी प्रथम सुनना है और बाद में लिखना है। यह सूत्र तो सब जानते हैं। जैसा सुनना वैसा बोलना,  जैसा पढ़ना वैसा लिखना। सुने बिना बोला नहीं जाता, पढ़ें बिना लिखा नहीं जाता।

और एक मजेदार जोड़ी है। सुनना होता है कान से बोलना होता है वाणी से। कान ज्ञानेंद्रिय है वाणी कर्मेन्द्रिय। पढ़ना होता है आंख से और लिखना होता है हाथ से। आंख ज्ञानेंद्रिय है और हाथ कर्मेन्द्रिय। एक और महत्वपूर्ण बात बताता हूँ। सुनना, बोलना, पढ़ना लिखना तो केवल ध्वनि या वर्ण स्वरूप के लिए है अर्थात् भाषा के एक ही आयाम शब्द के लिए है।

भाषा का दूसरा आयाम जो अर्थ है वह इंद्रियों से नहीं जाना जाता है। वह कहाँ रहता है? ज़रा विचार करिए। वह बुद्धि में रहता है। अतः भाषा सीखने का माध्यम बुद्धि है।