भारतीय सनातन जीवन दृष्टि के मूल सूत्र कुछ इस प्रकार हैं –
- सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है।
- सृष्टि का आधार आत्मतत्व के चेतन और जड़ स्वरूप की ग्रन्थि है।
- सृष्टिजीवन देश, काल और परिस्थिति में एक और अखंड है।
- सचराचर जगत् में आत्मतत्व अनुस्यूत है।
- सृष्टि की रचना परस्पर पूरक और चक्रीय है।
- सृष्टि के प्रत्येक जीव का उद्देश्य मोक्ष अर्थात् “आत्म साक्षात्कार” है।
- धर्म के अनुकूल काम और अर्थ पुरुषार्थ से मोक्ष सिद्ध होता है।
- कर्म ही जीवन का नियमन करते हैं।
- संबंधों और व्यवहार का मूल सिद्धांत एकात्मता है।
यह जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है क्योंकि उसका अधिष्ठान “आत्मतत्व” है। यह जीवनदृष्टि सनातन है क्योंकि यह देश, काल और परिस्थिति के परे है।
भारतीय जीवनदृष्टि और जीवन शैली
इस विश्व में अनेक राष्ट्र है और हर राष्ट्र का अपना अपना स्वभाव होता है। स्वभाव के अनुसार उसका स्वधर्म बनता है। स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार हर राष्ट्र की जीवन और जगत को देखने की अपनी अपनी दृष्टि होती है। उस दृष्टि के अनुसार हर राष्ट्र की जीवनशैली विकसित होती है, लोगों का मानस बनता है, व्यवहार होता है, उस व्यवहार के अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थाएँ बनती है और जीवन चलता है।
भारत भी एक राष्ट्र है। उसकी अपनी जीवनदृष्टि है। उसके आधार पर एक जीवन शैली विकसित हुई है। उसके अनुसार उसका जीवन युगों से चलता आ रहा है। भारतीय जीवन शैली आध्यात्मिक जीवन शैली है। विश्व में भारत की यही विशिष्ट पहचान है।
राष्ट्र की शिक्षा इस जीवनदृष्टि के अनुसार ही होती है। ऐसी होने पर वह जीवनदृष्टि को पुष्ट भी करती है। इसलिए राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करते समय राष्ट्रीय जीवनदृष्टि के प्रकाश में विचार करना अनिवार्य हो जाता है।
विश्व का कोई भी अन्य राष्ट्र आध्यात्मिक नहीं हैं यही भारत राष्ट्र और अन्य राष्ट्रों में मूलभूत भेद है। इस कारण से ही “भारत में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था, जो मूलतः पश्चिमी विचार प्रणीत है, पूर्णतः अभारतीय है”, ऐसा कथन स्वयंसिद्ध है।
भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली के प्रमुख आयाम इस प्रकार है…
एकात्म संबंध
जीवन के मूल तत्व को भारतीय चिंतन में अनेक नामों से कहा गया है। कहीं ब्रह्म है, कहीं परब्रह्म है, कहीं आत्मा है, कहीं परमात्मा है, कहीं ईश्वर है, कहीं परमेश्वर है, कहीं परम चैतन्य है, कहीं जगन्नियंता, कहीं सीधा सादा भगवान है। जैसी जिसकी मति वैसा नाम उस मूल तत्व को मनीषियों ने दिया है। इसको लेकर ही ऋग्वेद कहता है, ‘एकम् सत विप्रः बहुधा वदन्ति’ अर्थात् सत्य एक है, मनीषी उसे अलग अलग नाम देतें है। यह मूल तत्व अव्यक्त अचिंत्य, अकल्पनीय, अदृश्य अस्पर्श्य, अजर, अमर होता है। यह जगत या सृष्टि उस अव्यक्त तत्व का रूप है। व्यक्त रूप वैविध्य से युक्त है। यहाँ रस, रूप, स्पर्श, गढ़ आदि का अपरिमित वैविध्य है। सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे पदार्थ से किसी न किसी रूप में भिन्न है। परन्तु दिखाई देने वाली भिन्नता में मूल तत्व का एक तत्व है। मूल एकत्व और दिखाई देने वाली भिन्नता एक ही तत्व के दो रूप हैं। इस सृष्टि के सारे पदार्थ एक आत्म संबंध से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
मूल अव्यक्त तत्व के भावात्मक रूप प्रेम, सौंदर्य, ज्ञान और आनंद है। जिस प्रकार आत्मतत्व सृष्टि की विविधता के रूप में व्यक्त हुआ है, उसी प्रकार ये सारे तत्व भी सृष्टि में विविध रूप धारण करके व्यक्त हुए हैं।
इसके उदाहरण हमें सर्वत्र दिखाई देते हैं। कला, काव्य, साहित्य के सृजन में तो आनंद आता ही है परन्तु रोज़ रोज़ की सफाई करना, मिट्टी के पात्र बनाना, रुग्ण की परिचर्या करना, कपड़े सीना आदि कामों में भी वही आनंद का अनुभव रहता है। राजा प्रजा के, मालिक नौकर के, शिक्षक विद्यार्थी के संबंध में पिता पुत्र के संबंध की आत्मीयता रहती है। आत्मीयता ही प्रेम है। प्रेम के कारण सृष्टि में सौंदर्य ही दिखता है। आत्मीयता से ही विविध स्वरूप में एकत्व का बोध रहता है। यही ज्ञान है।
परस्पर पूरक और चक्रीय सृष्टि रचना
एकात्मता का व्यावहारिक रूप चक्रीयता और परस्पर पूरकता है। सारे पदार्थ गतिशील और परिवर्तनशील है। पदार्थों की गति वृत्तीय है। वे जहाँ से आए हैं वहीं वापस जाते हैं। इस प्रकार एक वृत्त पूर्ण होकर दूसरा वृत्त शुरू होता है। सारे पदार्थ जिसमें से बने हैं, उसी में वापस विलीन होते हैं। गतिशीलता और परिवर्तनशीलता के साथ ही परस्परावलम्बन और परस्पर पूरकता भी सृष्टि में दिखाई देती है। इन तत्वों के कारण सब एक दूसरे के पोषक बनते हैं। सब एक दूसरे के सहायक और एक दूसरे पर आधारित है। इस तत्व को ध्यान में लेकर भारत के जीवन की व्यवस्था हुई है।
सृष्टि में दिखाई देने वाले या नहीं दिखाई देने वाले अस्तित्व धारी सभी पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता है। उनका कोई ना कोई प्रयोजन है। इस तत्व को स्वीकार कर भारत की जीवन शैली का विकास हुआ है। उनकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार कर उनका आदर करना और उनकी स्वतंत्रता का राक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है।
इन तत्वों को भी मूल तत्व मानकर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। जगत में जितने भी संबंध है उनका आधारभूत तत्व प्रेम है। जितने भी सृजन और निर्माण है उनका आधारभूत तत्व सौंदर्य है, जितने भी कार्य हैं उनकी परिणीति आनंद है और जितने भी अनुभव है उनका आधारभूत तत्व ज्ञान है। सर्वत्र इन तत्वों का अनुभव करना ही जीवन को जानना है।
जीवन एक और अखंड है और कर्म जीवन का नियामक है
भारत की दृष्टि हमेशा समग्रता की रही है। किसी भी घटना या स्थिति के विषय में खण्ड खण्ड में विचार करना भारत का स्वभाव नहीं है। समस्त जीवन को भारत एक और अखण्ड मानता है। भारत जन्म जन्मांतर को मानता है। जन्म के साथ जीवन शुरू नहीं होता और मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता। एक के बाद दूसरे जन्म में जीवन अखण्ड है। एक जन्म का और दूसरे जन्म का जीवन भिन्न नहीं होता। अनेक जन्मों में वह एक ही रहता है। केवल जन्मजन्मांतर में ही नहीं तो जगत में दिखने वाले असंख्य भिन्न भिन्न पदार्थों में भी जीवन एक ही रहता है।
अखण्ड जीवन का संकेत है कि जिस प्रकार से एक दिवस के कर्मों का परिणाम भविष्य के दिवसों के अनुभव और क्रियाकलपों पर होता है, उसी प्रकार से एक जन्म के कर्मों का परिणाम अगले जन्मों पर होता है, यह प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है।
हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्मों का परिणाम है और इस जन्म के परिणामस्वरूप अगला जन्म होने वाला है। इसमें से कर्म, फल और भाग्य का कर्मसिद्धांत बना है। यह सिद्धांत कहता है कि हम जो कर्म करते हैं, उसके फल हमें भुगतने ही होते है। कुछ कर्मों का फल तत्काल तो कुछ का फल कुछ समय बाद भुगतना होता है। जब तक भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में संचित रहते हैं और चित्त में संग्रहित होते हैं। इस जन्म में नहीं भुगत लिए तो अगले जन्म में भुगतने होते हैं। कर्म फल भुगतते भुगतते नए कर्म बनते जाते हैं। कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म होता है। कर्मों के आधार पर जन्मभर में कैसे भोग होंगे यह निश्चित होता है। जीवन की गतिविधियों को समझाने वाला यह जन्म कर्म का सिद्धांत है, जो भारतीय जीवन दृष्टि का महत्वपूर्ण सिद्धांत है। कर्म सिद्धांत के साथ ही श्रीमद्भगवतगीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म, कर्म के फल की अपेक्षा छोड़ देने पर मुक्ति का सिद्धांत भी समझा जाता है।
समग्र जीवन विचार
यह जीवनदृष्टि व्यवहार में विभिन्न स्वरूप धारण करती है। इस दृष्टि पर आधारित समाज व्यवस्था में गृहसंस्था केंद्रवर्ती है। गृहसंस्था का आधार ही एकात्मता है। गृह में प्रतिष्ठित एकात्मता का विस्तार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तक होता है। सबको अपना मानना क्योंकि सब एक हैं, यह व्यवहार और संबंध का मूल सूत्र बनता है। वेदों का महावाक्य कहता है ‘सर्वं खलु इदं ब्रह्म’ अर्थात् यह सब वास्तव में ब्रह्म ही है। इस वेद वाक्य की प्रतीति हमें सर्वत्र होती है।
इस सृष्टि में जो ज्ञान है तो अज्ञान भी है, सत्य है तो असत्य भी है, जड़ है तो चेतन भी है, अच्छा है तो बुरा भी है, इष्ट है तो अनिष्ट भी है, प्रकाश है तो अंधकार भी है। अर्थात् सृष्टि का अव्यक्त रूप एक ही है, परंतु व्यक्त रूप द्वंद्वात्मक है। ये दोनों पक्ष हमेशा एक दूसरे के साथ ही रहते है। दो में से एक भी पूर्ण नष्ट नहीं होता है। समय समय पर दो में से एक प्रभावी रहता है परंतु संपूर्ण समाप्त नहीं हो जाता। इस तत्व को स्वीकार कर ही जीवन की सभी व्यवस्थाएँ बनाई गयी है। तथापि ज्ञान, सत्य, अच्छाई को ही व्यवहार में आदर्श माना गया है। कोई किसी को असत्य या दूर्जनता का व्यवहार करने को प्रोत्साहित नहीं करेगा। सब अच्छा ही बनना चाहेंगे। ऐसा बनने के लिए ऋषि तप, ध्यान, यज्ञ, साधना, ज्ञान प्राप्ति के लिए हमेशा उपदेश देते हैं।
समाज जीवन को आध्यात्मिक अधिष्ठान देने के लिये योगसूत्र अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच सार्वभौम महाव्रतों का पालन करने का उपदेश देते हैं। अर्थात् भारतीय जीवन दृष्टि में अध्यात्म और भौतिकता एक दूसरे से अलग नहीं रहते। आध्यात्मिकता सभी भौतिक रचनाओं में अनुस्यूत रहती है। तत्व और व्यवहार की एकात्मता इस जीवनदृष्टि का विशिष्ट लक्षण है। इसलिये समाज जीवन के लिए समृद्धि और संस्कृति, अभ्युदय और निःश्रेयस साथ साथ ही रहते है।
भारतीय जीवनदृष्टि समग्रता में स्थिति को देखती हैं। इसका एक और लक्षण यह है कि वह वैश्विक विचार ही करती है। सचराचर जगत का एक साथ विचार करती है। इसलिए व्यक्ति तो दूर की बात है, राष्ट्र भी नहीं सोचता कि उसका अकेले का विकास हो अथवा उसे अकेले को सब कुछ प्राप्त हो और दूसरों का जो होना हो वह हो। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ ऐसी ही उसकी कामना होती है। जीवन की सभी व्यवस्थाएँ भी इसी भावना के अनुसार ही बनी होती है।
संघर्ष नही सहअस्तित्व
सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है और मनुष्य उसमें सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। श्रुति कहती हैं कि परमात्मा ने मनुष्य को अपने प्रति रूप में बनाया है। मनुष्य श्रेष्ठ है इसीलिए सृष्टि उसके उपभोग हेतु बनी है, यह भारतीय दृष्टि नहीं है। श्रेष्ठ है इसलिए अपने से कनिष्ठ सभी प्राणियों और पदार्थों का रक्षण और पोषण करना उसका कर्तव्य है। जीवन के सभी व्यवहारों में बड़प्पन के साथ कर्तव्य और दायित्व तथा छोटेपन के साथ रक्षण का अधिकार जुड़ा हुआ है। समाज की धारणा के लिए यह एक उत्तम संतुलन की व्यवस्था है।
भारतीय विचार खण्ड खण्ड में नही अपितु समग्रता में जीवन को देखता है। इस कारण यहाँ संघर्ष नहीं है, समन्वय है। यहाँ व्यक्तिकेंद्री नहीं अपितु परमेष्ठीकेंद्री विचार है। इस कारण से एक दूसरे के विरुद्ध दूसरा, ऐसी धारणा नहीं बनती है। एक को मिलेंगा तो दूसरे को नहीं मिलेगा, ऐसी व्यवस्था नहीं है। सबको अपनी आवश्यकता के अनुसार मिलेंगा ऐसी श्रद्धा है। जिन्हें भी उसने जन्म दिया है उन सब की आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति करती है ऐसी धारणा के अनुसरण में किसी भी मनुष्य या प्राणी या पदार्थ की आवश्यकता की पूर्ति करने को मनुष्य ने भी अपना धर्म बनाया है।
संघर्ष का मूल स्पर्धा है, और परिणाम हिंसा और उसके बाद विनाश है। भारत के सामाजिक आचरण का प्रस्थान बिंदु ही अहिंसा है जिसमें स्पर्धा और उसी की श्रृंखला में आने वाले संघर्ष, हिंसा और विनाश को स्थान नहीं दिया है। इस कारण से ही भारत चिरंजीव रहा है। इस जीवनदृष्टि के अनुसार यदि विश्व चलता है तो पर्यावरण का प्रदूषण, बलात्कार, गुलामी जैसे महासंकट दूर होंगे इसमें कोई संदेह नहीं। यह दृष्टि सहअस्तित्व को स्वीकार करने वाली है। जगत में जितने भी संप्रदाय, परम्पराएं, शैलियों आदि है उन सब का सम्मान करने वाली है और जो भी सहअस्तित्व को नहीं मानते, उनके साथ भी समायोजन करने की कला भी इसे अवगत हैं।
जीवन विकास और समृद्धि
भारत के हजारों वर्षों के इतिहास ने यह सिद्ध किया है कि आध्यात्मिक जीवनदृष्टि और उस पर आधारित जीवन शैली ही सर्वाधिक और सर्वव्याप्त समृद्धि की जनक होती है।
धन, संसाधन, ज्ञान, प्रेम, करुणा, सामर्थ्य, शौर्य, पवित्रता, समायोजन, सौहार्द, सौन्दर्य, आनंद, सहिष्णुता, वीरता, नैतिकता, क्षमता, कौशल्य, निपुणता, उपभोग, बौद्धिकता आदि आज विकास के जितने भी सूचकांक है, वे सब भारतीय जीवन शैली से सिद्ध होते हैं और मोक्ष की संकल्पना में समाविष्ट भी होते हैं।
भारतीय जीवन दृष्टि निर्धनता और दारिद्र्य में भेद करती है। निर्धनता जो आध्यात्मिक अनुभूतियों अर्थात् समर्पण, प्रेम, आनंद, करुणा, सेवा और त्याग की भावना का विकास करे, ऐसी निर्धनता स्वीकार्य है। ऐसी जीवनशैली सदियों से भारत में गौरवान्वित है, प्रतिष्ठित भी है। इस जीवनशैली का पालन करने वाले अनेकों व्यक्तित्वों के उदाहरण भारतीय इतिहास में उपलब्ध हैं।
इसके विपरीत किसी भी स्वरूप (धन, विचार, बुद्धि, आचरण आदि) की दरिद्रता, अर्थात् आवश्यकता किन्तु अनुपलब्धता जो क्लेश, विषाद, वैमनस्य, संघर्ष, रुग्णता, दुःख आदि को जन्म दे, को पाप की श्रेणी में ही माना जाता है।
भारतीय जीवनदृष्टि के अनुसार अपनी धर्मानुसार आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु, संयमित परंतु रसपूर्ण उपभोग हेतु से पुरुषार्थ कर समृद्धि प्राप्त करना ही प्रत्येक मनुष्य का धर्म है। भारतीय जीवन शैली इस जीवनदृष्टि का युगानुकूल और सम्यक व्यक्त रूप है।